देश भर में कई सेक्टर में गिरती मांग के कारण उत्पादन में कमी आई है और बेरोजगारी बढ़ाने की वजह बनी है। कर नीति और बड़े संस्थागत सुधार अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रहे हैं। निवेश में कमी आ रही है, विदेशी निवेशकों का आकर्षण कम हो रहा है। स्वदेशी निवेशक भी हाथ रोके बैठे हैं। रिजर्व बैंक की संचित पूंजी और रिजर्व से जितनी बड़ी रकम सरकार ने ली है उतनी एक वित्त वर्ष में पहले कभी नहीं ली। प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष करों के दायरे में आने वालों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है, किंतु करों से मिला राजस्व अपेक्षा से कम हुआ है। कीमतों का स्तर नियंत्रण में रहा, किंतु उत्पादकों को इससे नुकसान हुआ है।

विनिर्माण क्षेत्र का विकास अगस्त 2019 में पिछले 15 महीनों के सबसे निचले स्तर पर आ गया था। जुलाई 2018 में इस क्षेत्र का विकास दर 7.3 प्रतिशत था जो जुलाई 2019 में 2.1 प्रतिशत ही रह गया। कोयला, कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस और रिफाइनरी की वस्तुओं के उत्पादन में गिरावट बनी रही। ऑटोमोबाइल सेक्टर में लगभग 20 से 30 प्रतिशत तक की गिरावट का अनुमान है जो पिछले दो दशकों में नहीं हुआ। दोपहिया वाहनों, कारों, वाणिज्यिक वाहनों आदि की मांग गिरी है।

बड़ी कंपनियों ने उत्पादन में कटौती शुरू कर दी है। कच्चे माल के सप्लायर्स को भुगतान मिलने में देर हो रही है, बैंकों से कर्ज लेना उतना आसान नहीं है जितना सरकार वादे कर रही है। जीएसटी की प्रक्रिया में सरलीकरण की मांग सभी क्षेत्रों के छोटे और मध्यम उद्यमियों और व्यापारियों द्वारा शुरू से है, किंतु सरकार उतनी संवेदनशील नहीं है, जितनी अपेक्षा है। समय-समय पर आश्वासन दिए जाते हैं, किंतु अमल कागजों पर अधिक, धरातल पर कम है।

उपभोक्ता के पास नकदी का अभाव : आम उपभोक्ता के पास नकदी की कमी है। डिजिटलाइजेशन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का प्रयास जिस गति से किया जा रहा है उससे नकदी की किल्लत और बढ़ी है। एटीएम से रुपये निकालने की सीमा पहले से ही बाजार में रुपये के सरकुलेशन को प्रभावित कर रही है। अमीर देशों में जहां लोगों की औसत आमदनी भारत से कई गुना अधिक है, वहां की परिस्थितियां अलग है। डिजिटलाइजेशन की ओर भारत में भी लोग बढ़ रहे हैं, किंतु आबादी का एक बड़ा हिस्सा अभी इसे पूरी तरह से अपना नहीं पाया है और वह इसे असहज मानता है जिससे यह कहा जा सकता है कि बहुत जल्दबाजी की आंच अर्थव्यवस्था पर पड़ रही है। यह सच है कि विमुद्रीकरण की मार से अर्थव्यवस्था अभी पूरी तरह उबरी नहीं है।

आम उपभोक्ताओं के पास रुपये की कमी का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि निजी उपभोग जो जीडीपी के आधे हिस्से का स्रोत है उसका विकास दर जून 2019 में मात्र 3.1 प्रतिशत था। जून 2012 से जून 2019 की पीएफसीई (प्राइवेट फाइनल कंजम्पशन एक्सपेंडीचर) के आकलन के अनुसार निजी उपभोग में चार प्रतिशत से कम बड़ा विकास सिर्फ तीन तिमाहियों में दर्ज किया गया।

किसानों की समस्याओं के समाधान पर देना होगा जोर : किसानों को फसल की पूरी कीमत नहीं मिल रही है, जबकि उत्पादन लागत बढ़ता जा रहा है। बीज, खाद, बिजली, पानी, यातायात, स्टोरेज सभी महंगे होते जा रहे हैं, किंतु गल्ले की कीमत में बढ़ोतरी नहीं हो रही है। शहर के आम उपभोक्ता को इसका लाभ मिलता है, किंतु किसान पिसता है, कर्ज में डूबता है और आत्महत्या तक करने पर मजबूर हो जाता है। इस स्थिति में बदलाव आवश्यक है। बड़ी संख्या में किसान और खेतिहर मजदूर गरीबी रेखा के नीचे हैं जिनकी आमदनी में वृद्धि के बिना आर्थिक असमानता बढ़ रही है। पूरी अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही है, विकास में रुकावट आ रही है।

किसानों की आमदनी में वृद्धि के लिए आम चुनाव के पहले सरकार ने गल्ले की खरीद की कीमत बढ़ाने, किसानों को 6,000 रुपये प्रति वर्ष सम्मान निधि देने और कर्ज की सुविधा बढ़ाने के जो वादे किए थे वे किसानों की माली हालत को सुधारने में कुछ योगदान करेंगे, किंतु ये पर्याप्त नहीं हैं। खुदरा व्यापार जो शहरों में आमदनी का सबसे बड़ा स्नोत है, उस पर भी सरकार को ध्यान देने की आवश्यकता है।

बड़े-बड़े वैश्विक खुदरा कारोबारियों को दी जाने वाली सुविधाएं सरकार बढ़ाती जा रही है, जबकि देश के कोने-कोने में घर-घर वस्तुओं की सप्लाई करते छोटे उद्यमियों, दुकानदारों, व्यापारियों, शिल्पकारों और कारीगरों के हितों की अनदेखी हो रही है। देश में संयुक्त परिवार की जो परंपरा सदियों से चली आ रही है, जो देश को एक मजबूत आर्थिक आधार देती है, वह टूट रही है। इसका परिणाम सरकार द्वारा सामाजिक सुरक्षा पर होने वाले खर्चो में वृद्धि के रूप में भी देखा जा सकता है।

प्राकृतिक कारणों से भी बड़ी बाधा : प्रकृति का प्रकोप भी आर्थिक विकास में रुकावट का कारण बन रही है। बढ़ती आबादी जंगलों और वन्य जीव जंतुओं के विनाश का कारण बन रही है। नदियों का प्रदूषण पेयजल का संकट बढ़ा रहा है, पर्वत शिखरों से ग्लेशियर पिघलने से बादल फटने, भूमि और वायु प्रदूषण से जलवायु में अप्रत्याशित बदलाव हो रहे हैं। सागर तट पर बसे लोग बार-बार भयानक तूफान के शिकार हो रहे हैं। देश के बड़े भूभाग में पिछले कुछ सप्ताहों में बाढ़ के कारण खेती की पैदावार प्रभावित हुई है, बड़ी संख्या में लोग बेघर हुए हैं, उद्योग धंधे व्यापार और सेवाएं प्रभावित हुई हैं। यद्यपि प्राकृतिक आपदाएं हर वर्ष दस्तक देती रही हैं, किंतु इस वर्ष यह प्रकोप कुछ ज्यादा ही रहा है।

वैश्विक दशाओं के अनुकूल व्यापार नीतियों में बदलाव : बाहरी परिस्थितियां अर्थव्यवस्था के विकास में अहम भूमिका निभाती हैं। आर्थिक मंदी इस समय दुनिया के बहुत सारे देशों की अर्थव्यवस्था को नीचे ला रही है। अमेरिका और चीन का व्यापार युद्ध (टेड वॉर) बढ़ता जा रहा है जिसने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को हिला कर रख दिया है। दोनों ही देशों के साथ भारत का व्यापार बड़े पैमाने पर है। चीन से भारत बड़ी मात्र में माल खरीदता है, उसको निर्यात कम करता है जिससे ‘बैलेंस ऑफ पेमेंट’ चीन के पक्ष में है। अमेरिका से बैलेंस आफ पेमेंट भारत के पक्ष में है।

चीन से आयातित बहुत सारी उपभोक्ता वस्तुएं बाजार में उस कीमत से भी कम पर उपलब्ध हैं जिस पर हमारे यहां के उद्योग उत्पादन करते हैं। चीन की डंपिंग नीति के कारण यह स्थिति सिर्फ भारत में ही नहीं, अपितु विश्व के बहुत सारे देशों के बाजारों में देखी जा सकती है। चीन से व्यापार नीति पर भारत सरकार को पुनर्विचार की आवश्यकता है, वर्तमान स्थिति में बदलाव की जरूरत है। अमेरिका के साथ आर्थिक संबंधों में भी कुछ तनाव रहा है।

मुक्त व्यापार का सबसे बड़ा पक्षधर अब चीन की आर्थिक प्रभुता बढ़ने से बेचैन है। अमेरिका में आयात होने वाली वस्तुओं और सेवाओं पर प्रतिबंध बढ़ रहा है जिससे भारत की अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हो रही है। बड़ी आर्थिक शक्ति जिस तरह अपने बाजार सुरक्षित करने के लिए आयातित माल और सेवाओं पर प्रतिबंध लगा रहे हैं, वह इस आशंका की पुष्टि कर रहा है कि वैश्वीकरण की उल्टी गिनती शुरू हो गई है।

ऐसे परिदृश्य में भारत को भी अपने बाजार सुरक्षित करने और निर्यात को बढ़ाने के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। वर्ष 2017-18 में भारत का निर्यात विकास दर 13.3 प्रतिशत था जो 2018-19 में सात प्रतिशत पर आ गया। विश्व व्यापार में वर्ष 2019 में 2018 की अपेक्षा कमी का अनुमान लगाया जा रहा है तीन प्रतिशत से 2.6 प्रतिशत पर आने का।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के बिजनेस इकोनॉमिक्स विभाग के पूर्व विभागाध्‍यक्ष हैं। प्रकाशित विचार उनके निजी हैं।)