तेलंगाना के हैदराबाद में एक पशु चिकित्सक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार और उसकी हत्या के बाद उसे जिंदा जला दिए जाने की घटना ने देश को हिला कर रख दिया है। सडक़ से लेकर संसद तक इस पर आक्रोश भडक़ उठा है। इस हादसे ने एक बार फिर सात साल पुराने निर्भया कांड की याद दिला दी है। आज हर देशवासी के भीतर यह सवाल है कि आखिर हमारा सिस्टम ठीक उसी तरह के हादसे भी क्यों नहीं रोक पा रहा है? जिस दिन हैदराबाद की घटना घटी उसके ठीक एक दिन पहले झारखंड की राजधानी रांची में बारह लोगों ने व्यस्त सडक़ से एक लडक़ी को उठाकर उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया। इन दोनों घटनाओं पर जब बवाल मचा तो दोषी पकड़ लिए गए और तेलंगाना वाले मामले में तीन पुलिसकर्मियों को सस्पेंड कर दिया गया।
शीघ्र सुनवाई के लिए एक फास्ट ट्रैक कोर्ट भी गठित कर दिया गया है। लेकिन यह प्रश्न अपनी जगह कायम है कि हमारे शहर महिलाओं के लिए अब भी इतने असुरक्षित क्यों हैं? आखिर क्यों वे डर-डर कर जिंदा रहने को मजबूर हैं? पिछले साल आए थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन के एक सर्वे ने पूरी दुनिया में भारत को महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक और असुरक्षित देश बताया था। सचाई यह है कि हमारी व्यवस्था महिला सुरक्षा के प्रति जरा भी संवेदनशील नहीं है। निर्भया कांड के बाद कई कानूनों में अहम बदलाव किए गए। पट्रोलिंग से लेकर एफआईआर के तौर-तरीकों और ट्रैफिक व्यवस्था तक में फेरबदल किए गए। पुलिस की सोच बदलने को लेकर भी काफी योजनों बनाई गईं।
2013 के केंद्रीय बजट में निर्भया फंड नाम से 100 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था, जिसकी राशि बढक़र अभी 300 करोड़ हो चुकी है। इन बदलावों का मकसद ऐसे इंतजाम करना था कि महिलाएं घर से बाहर सुरक्षित रह सकें। देश में 600 ऐसे केंद्र खोले जाने थे, जहां एक ही छत के नीचे पीडि़त महिला को चिकित्सा, कानूनी सहायता और मनोवैज्ञानिक परामर्श हासिल हो सके। सार्वजनिक जगहों पर सीसीटीवी कैमरे लगाने, महिला थानों की संख्या बढ़ाने और नई हेल्पलाइनें शुरू करने की बात भी कही गई। मगर इन सब का नतीजा क्या निकला? यही कि तकरीबन रोज ही देश के किसी न किसी कोने से बलात्कार और हत्या की खबरें आ रही हैं। अपराधियों के भीतर कानून का कोई खौफ नहीं है।
बलात्कार के मामले पहले से ज्यादा दर्ज होने लगे हैं लेकिन अपराधियों को सजा दिलाने की दर ज्यों की त्यों है। अपराधी को सजा आज भी चार में एक मामले में ही मिल पाती है। इस स्थिति से उबरने का एक छोर यही है कि त्वरित न्याय हो और लोगों में सजा का खौफ दिखे। दूसरा छोर शहरों में पुलिस तंत्र की चौकसी से जुड़ा है। सडक़ों पर गश्त इतनी होनी चाहिए कि अपराध करने से पहले अपराधी के हाथ कांप जाएं। इसके लिए जरूरी हो तो पूरे पुलिस बल की ओवरहॉलिंग की जाए। जितना भी पैसा लगे, लगाया जाए। हीला-हवाली का रवैया हमें कभी तो छोडऩा होगा।
बर्दाश्त से बाहर
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